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रविवार, 18 अप्रैल 2010

shiv


मेरी आँखों में
नचाता था तू
ही ख्वाबों को
बाँध के गंगा
की धारा से
बने धागों से ....
इस ओर,
उस ओर,
मगर मेरी
ही ओर,
उड़ती रहती थीं
तितलियाँ तेरी
नज़रों की
अपने पंखों पे
रंगीन सी हंसी रखे...
मेरी धड़कन पे
तू अपनी जटा
फैला कर कैसे
सुनता था
झिलमिलाती
इनकी बातें ॥
तेरा साथ होना
कितना
खूबसूरत था वादियाँ
मेरे इशारों
पे रहा करती थीं ॥

झट से खींचे
थे एक दिन
तूने वो धागे
में बंधे सब
ख्वाब मेरी
आँखों से ,
मेरी रूह की
नज़र भी
ज़ख्मी हो गयी थी ...
बुला ली तुने
जब से अपनी
नज़र की तितली
मैं किसी को
नज़र नहीं आती ॥
रौशनी मांद
पड़ गयी है
झिलमिलाती
धड़कन की
रौशनी की
आवाज़ नब्ज़
की तरह चुप है ...

जाते जाते मगर
इतना तो बता
देते शिव !
क्यूँ ना खोल गए
मुझपे तीसरी
आँख अपनी ?
के मेरे जेहन
में तेरे जाते
ही खुल गयी
थी तीसरी
आँख तेरे
इन्तेज़ार की ... !
-----आंच-----

4 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

om namah shivay...bahut achcha...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

Tej ने कहा…

jai shiv shankar...

Tej ने कहा…

jai Shiv Shankar

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

थोड़ी अलग प्रस्तुति पर बढ़िया...धन्यवाद