तुम्हें याद है ना मेरी
आरज़ुओं को आदत थी
तुम्हारे फलक के
रंगीन सितारे तकने की,
इन दिनों ये मुरझाईं-सी हैं ...
यूँ करो एक रोज़
अपना फलक एक
डिबिया में रख के
भेज दो ना.....
हवा से माँगता नहीं हैं
दिल साँस की एक
भी लहर क्यूँकि
अब हवाओं के दिल
में इश्क नहीं,
धडकनों में ना
घुट के मर जाये
तेरी चाहत की
नब्ज़ का जरिया...
हवा का एक
पुर-इश्क क़तरा
अपनी मुट्ठी में
बाँध कर फेंको...
नज़र पाँवों की
धुँधलाई पड़ी है
थकन के खूब सारे
अश्कों से, चलते
हैं ना देख पाते हैं,
वो वादा हमकदम
हो जाने का वो
वादा आज फिर से
भेजो ना इन्हें रस्ता
दिखे चलने लगे ये
कानों को बहुत
शिकायत है ना
आवाज़ लाती हूँ
तुम्हारी ना ही
परोसती हूँ वो हँसी
जिनकी आदत-सी
पड़ी गयी थी इन्हें ...
हँसी की आज
नन्ही बूँद कोई लबों
पे रख के इधर भेजो ना
तुम्हारे मस का स्वाद
हाथों को एक मुद्दत हुई,
नहीं आया तो अब
हर शय का लम्स
हाथों को बहुत
बेस्वाद सा लगने लगा है ..
एक एहसास तुम
अपनी छुवन का
अपनी खुशबु में
भर के भेजो ना ...
बहुत मुश्किल है ना
मुझको ये सब भेजना,
तो यूँ करती हूँ मैं
बादल की एक बोरी
में आरजू, दिल, कान,
पाँव अपने हाथ
के साथ बाँध देती हूँ
रेशमी लहरों के इक
धागे से और भेज
देती हूँ तुमको ..
बादल खोल के मेरी
आरजुएँ देखना तुम
उन्हें रखना शब
भर अपने फलक
पर तुम्हारे तारों का
उनको ज़रा तो
साथ मिले ..
तुम अपनी छत पे
खुली-सी हवा में
जहाँ पे इश्क
मौसम हो मेरे
दिल को टाँग
देना बस, कि दम
भर साँस ले
चाहत तेरी रखे जिंदा ..
एक वो हमकदम
होने का वादा
मेरे पाँवो को ऐसे दे
देना जैसे पोंछी हो
तुम ने आँखें भी
और वो देख पायें
रास्ते भी , चाहे
ये थोड़ी देर ही क्यूँ हो..
मेरे कानों को
रखना जेब में
तुम कि तुम
किसी से भी हम-
सुखन होगे इनके
पेट को भरते रहोगे ..
हाथ को रखना तुम
हथेली पर ही
अपनी तुम्हारे
मस की खुशबू
जब तलक भर
जाये ना इनमे ...
मगर तुम अजनबी
हो अब मुझसे
तो क्या इक
अजनबी के लिए
तुम इतना सब
कुछ कर भी पाओगे?
----ritu saroha "aanch"-----
http://kavita.hindyugm.com/2010/05/ajnabi.html
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रविवार, 23 मई 2010
मंगलवार, 4 मई 2010
chand
कभी बोझिल से
माथे पे
लगी बतियाती बिंदी...
कभी मछली की
आँखों से छलकती
रौशनी...
कभी किसी सांप
की मणी...
कभी फूलों के बीच
भीगी सी खुशबु...
कभी बच्ची के हाथो
में फड़कती जिंदगी...
कभी मोती
सा खुद ही में
पूरा....
हर रात जहाँ की हर
शय अर्श पर
यूँ ही बादलो
से बनती
बिगड़ती रहती है....
मगर कुछ भी
मुकम्मल नहीं लगता
उससे चाँद जुड़ने से
पहले तक....
मैं उन्ही बादलो
का टुकडा हूँ...
हर रूप में
ढलने की कोशिश में
बिन तुम्हारे
अधूरी ही रह जाती हूँ....
और तुम
खुद ही में मुकम्मल
मुकम्मल चाँद......
----आंच----
माथे पे
लगी बतियाती बिंदी...
कभी मछली की
आँखों से छलकती
रौशनी...
कभी किसी सांप
की मणी...
कभी फूलों के बीच
भीगी सी खुशबु...
कभी बच्ची के हाथो
में फड़कती जिंदगी...
कभी मोती
सा खुद ही में
पूरा....
हर रात जहाँ की हर
शय अर्श पर
यूँ ही बादलो
से बनती
बिगड़ती रहती है....
मगर कुछ भी
मुकम्मल नहीं लगता
उससे चाँद जुड़ने से
पहले तक....
मैं उन्ही बादलो
का टुकडा हूँ...
हर रूप में
ढलने की कोशिश में
बिन तुम्हारे
अधूरी ही रह जाती हूँ....
और तुम
खुद ही में मुकम्मल
मुकम्मल चाँद......
----आंच----
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