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मंगलवार, 4 मई 2010

chand


कभी बोझिल से
माथे पे
लगी बतियाती बिंदी...
कभी मछली की
आँखों से छलकती
रौशनी...
कभी किसी सांप
की मणी...
कभी फूलों के बीच
भीगी सी खुशबु...
कभी बच्ची के हाथो
में फड़कती जिंदगी...

कभी मोती
सा खुद ही में
पूरा....

हर रात जहाँ की हर
शय अर्श पर
यूँ ही बादलो
से बनती
बिगड़ती रहती है....
मगर कुछ भी
मुकम्मल नहीं लगता
उससे चाँद जुड़ने से
पहले तक....
मैं उन्ही बादलो
का टुकडा हूँ...
हर रूप में
ढलने की कोशिश में
बिन तुम्हारे
अधूरी ही रह जाती हूँ....

और तुम
खुद ही में मुकम्मल
मुकम्मल चाँद......

----आंच----

7 टिप्‍पणियां:

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

:)

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

उससे चाँद जुड़ने से
पहले तक....
मैं उन्ही बादलो
का टुकडा हूँ...
हर रूप में
ढलने की कोशिश में
बिन तुम्हारे
अधूरी ही रह जाती हूँ....

खूबसूरत अभिव्यक्ति.....

दिलीप ने कहा…

waak kya upmaayein di...

बेनामी ने कहा…

bahut khub.....
:)

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

बहुत बढ़िया लिखा आपने...
_________________
पाखी की दुनिया में- 'जब अख़बार में हुई पाखी की चर्चा'

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा है....

बेनामी ने कहा…

bahut khub likha hai aapne...
achhi rachna ke liye badhai...
aapko apne blog ka pata de raha hoon...
umeed hai jaroor darshan honge....
http://i555.blogspot.com/