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गुरुवार, 17 जून 2010

nazm

बादल की
अठखेलियों से
टिमटिमाती शाम
तुम बिछा दो
जो रुमाल काला
खेल खत्म
हो जाए....

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आवाज़ की रातो
तले दबी
बुदबुदाती आँखों से
मैं ख़ामोशी चुरा
लायी हूँ.....
तुम कहो तो
दो रोज़ को
जुबां पे रख लूँ....

----आंच---

4 टिप्‍पणियां:

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

पहली नज़्म बेमिसाल...दूसरी को सवाल बनाकर जवाब दिया है...पहली बार आया हूँ यहाँ...गुस्ताखी मुआफ़ः
आवाज़ की रातो
तले दबी
बुदबुदाती आँखों से
मैं ख़ामोशी चुरा
लायी हूँ.....
तुम कहो तो
दो रोज़ को
जुबां पे रख लूँ....

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ना ना ऐसा कभी नहीं करना
ख़ामुशी में तेज़ाब होते हैं
ऐसा कहना है वर्तिका का मगर
मुझको इसपर तनिक नहीं है यकीन
आँच तुमने जो सजा ली कभी ख़ामोशी अगर
मैं तो आतिश में झुलस जाउँगा ख़मोशी के
लफ्ज़ होठों पे जो सजते हैं तो बन जाते हैं इक आबेहयात
नाम मेरा जो पुकारो तभी निजात मिले!!

Parul kanani ने कहा…

wow!

Avinash Chandra ने कहा…

dono hi behad khubsurat

बेनामी ने कहा…

come bac.....come bac.....come bac.....come bac......pleeeeeeeeze :)